झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की गाथा

रानी लक्ष्मी बाई की कहानी

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 16 नवंबर 1834  को काशी के अस्सी घाट वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था। इनका बचपन का नाम मणिकर्णिका रखा गया था। परंतु प्यार से मणिकर्णिका को मनु नाम से पुकारा जाता था। वह अधिक समय तक अपनी माता के प्रेम का उपभोग ना कर सके। 4 साल उपरांत मनु की माता भागीरथी  बाई का देहांत हो गया। बाजीराव के आश्रम में वही निवास करने लगे एक बार बिठूर में पेशवा बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब उनके वितरण और उनके मित्र गण हाथी पर हवा खोरी के लिए जा रहे थे। तब मनु 7 वर्ष की आयु की थी ।और वह हाथी पर चढ़ने की जिद करने लगी बाजीराव में नाना साहब से बार-बार लक्ष्मीबाई को भी साथ में बैठा लेने को कहा पर  वे भी ना माने यह देखकर लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत नाराज होकर अपनी पुत्री को डांटते हुए कहा क्या तेरी तकदीर में हाथी पर बैठना लिखा है क्या व्यर्थ में हठ कर रही हो। लक्ष्मीबाई ने तपाक से उत्तर दिया-मेरी तकदीर में तो 10 हाथियों पर बैठना लिखा है। मनु बाई छोटी सी उम्र में पेशवा के बालकों के साथ 67 प्रकार की शिक्षा प्राप्त  कर चुकी चुकी  थी। उसी समय उसे घुड़सवारी और हथियार चलाने का शौक था।  जो आगे चलकर उसे आदर्श वीरांगना बनाने वाला सिद्ध हुआ पेशवा बाजीराव उसकी सुंदर और गोली आकृति को देखकर बहुत प्रसन्न रहते थे। और उसे छबीली कहते थे।

1-2 वर्ष के बाद उसका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया था । लक्ष्मी बाई की शिक्षा दीक्षा चल ही रही थी। कि उसी समय झांसी के महाराज गंगाधर राव गद्दीनशीन हुए अंग्रेज सरकार उनको गद्दी का हकदार नहीं मानती थी ।और सन 1838 से 1841 तक 4 वर्ष उसने अपना प्रतिनिधि रखते झांसी का शासन कार्य चलाया  भी था फिर कुछ सोच विचार करके गंगाधर राव को गद्दी दे दी गई तो भी अब वह पूर्ण रुप से अंग्रेज सरकार के आश्रित हो गए थे। उनको यह शर्त स्वीकार करनी पड़ी कि वह अपने यहां अंग्रेजी सेना की एक ही रखेंगे और खर्च के लिए प्रतिवर्ष सवा ₹200000 वार्षिक देते रहेंगे।

अंग्रेजों की यही नीति थी। कि एक-एक करके यहां के देसी राज्यों को आत्मसात कर लिया जाए पहले तो वे राजा से मित्रता करने का बहाना करते थे। उनके हाथ में प्रतिनिधित्व करते थे। और बाद में जब किसी कारण ही राजाओं की स्थिति  कमजोर पड़ती दिखाई देती तो अब कोई बहाना निकाल कर उसे हटाने की कोशिश करते हैं ।झांसी के साथ भी उन्होंने इसी नीति का प्रयोग किया ।

गंगाधर राव एक दयालु और प्रजा हितैषी राजा थे जनता के सुख-दुख का पूरा ध्यान रहता था ।लोग प्रेम से उनको काका साहब कह कर पुकारते थे! झांसी राज के भविष्य की उनको सदा चिंता रहती थी। क्योंकि वह अंग्रेजों की सर्वोच्च नीति को भली प्रकार समझ गए थे ।खासकर जब लक्ष्मीबाई के विवाह को 8 वर्ष व्यतीत हो जाने पर उनको कोई संतान नहीं हुई तब तो उनकी चिंता और बढ़ गई वे जानते थे ।कि यदि कोई उत्तराधिकारी ना हुआ तो अंग्रेज अवश्य झांसी पर अधिकार कर लेंगे।

उनका ध्यान धार्मिक कार्यों की तरफ अधिक जाने लगा दे तीर्थ यात्रा के लिए रवाना हुए और कई महीनों तक अनेक तीर्थों में जाकर खूब दान पुण्य किया जब वे तीर्थ यात्रा से लौटे तो लक्ष्मीबाई गर्भवती हो गई। और सन 1851 में उसने एक पुत्र को जन्म दिया इससे राजा और प्रजा सब को बड़ी खुशी हुई पर वह बालक कुछ ही समय तक जीवित रहा गंगाधर राव को इससे इतना शौक हुआ कि उनका स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा। और 2 साल बाद ही उनका देहांत हो गया ।मरने से एक-दो दिन पहले उन्होंनेे एक बालक दामोदर राव को दत्तक को गोद लिया और अंग्रेज अधिकारियों को सूचित किया कि उनके पश्चात उसे राज्य का उत्तराधिकारी माना जाए।

पर झांसी की निर्बल दशा देखकर अंग्रेजों के मन में बेईमानी का भाव उत्पन्न हो गया था। उनके झांसी स्थित प्रतिनिधियों ने महाराज के मरते ही खजाने और किले पर अधिकार कर लिया। और महारानी लक्ष्मीबाई को नगर स्थित राज महल में रहने का आदेश दिया। उन्होंने उनके खर्च के लिए केवल ₹5000 सालाना की पेंशन मंजूर की।

जिस समय की यह घटना है। उन दिनों भारतवर्ष का शासन सूत्र लॉर्ड डलहौजी के हाथ में था उनकी नीति स्पष्ट रूप से देशी राज्यों को का अस्तित्व मिटा कर उन सब को अंग्रेजी शासन के अंतर्गत ले आने की थी दो 4 वर्ष के भीतर ही उसने केवल झांसी को ही नहीं वरन नागपुर सातारा लखनऊ आज कितने ही बड़े बड़े राज्यों को उत्तराधिकार की शर्त के नाम पर जप्त कर लिया था ।पेशवा बाजीराव के मरने पर उनके दत्तक पुत्र राणा साहब को आना अधिकारी बताकर उनकी आठ लाख की पेंशन भी बंद कर दी गई थी!

महारानी लक्ष्मीबाई ने सरकारी आज्ञा का कड़ा विरोध किया और दृढ़ता पूर्वक कहा “मैं झांसी नहीं दूंगी”

उन्होंने सरकार की पेंशन में लेकर अपने दत्तक पुत्र दामोदर गांव की तरफ से इंग्लैंड की सर्वोच्च नहीं न्याय संस्था तक अपील की अंग्रेज अधिकारियों कीनीति के विरुद्ध समस्त देश में असंतोष की भावना दिन पर दिन गहरी होती जाती थी। उधर भारतीय सेना में जो नई तरह के कारतूस आए थे ।उनके लिए एक अफवाह फैली कि उनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी है और उन्हें चलाते समय दांतो से काटना पड़ेगा इससे हिंदू मुस्लिम दोनों धर्मों के सिपाहियों में क्रोधित होकर उनका व्यवहार मे ना लाने का निश्चय किया। अंग्रेजों के विरुद्ध देशव्यापी असंतोष को देखकर कुछ भारतीय राजनीतिज्ञों ने जिनमें प्रमुख नाम नाना साहब पेशवा कथा विद्रोह की योजना बनाई सन 18 सो 57 की 10 मई को मेरठ छावनी की भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया जिसके कठोर पूर्व दमन किया गया इससे देशभर में असंतोष और अभी भयंकर रूप धारण करने लगे और 4 जून को कानपुर झांसी दोनों स्थानों की सेनाओं में विद्रोह करके अंग्रेज अफसरों को मार डाला ?इसके पश्चात जब उन्होंने झांसी नगर को सब प्रकार से आरक्षित देखा तो खाली किले पर अधिकार करके उसे फिर से युद्ध उपयोगी बनाया सेना में कई हजार नई भर्ती की गई बहुत सी तोपों को ठीक करके बुर्जा पर लगाया गया और सब प्रकार की युद्ध सामग्री संग्रह करके संघर्ष की तैयारी कर ली गई।

इस तरह 9 महीने तक लक्ष्मीबाई ने बड़ी योग्यता और दूरदर्शिता के साथ झांसी का शासन किया इसी बीच में उनको दो आक्रमणकारियों को जो झांसी को बिना मालिक का समझ कर उस पर अधिकार जमाने को आए थे ।उन्हें हराकर भाग जाने पर विवश कर दिया। पर जब अंग्रेजों की नई सेनाएं इंग्लैंड से आ गई और सेनानायक सर हुजूर एक-एक करके कितने ही विद्रोही राजाओं को हराते हुए झांसी पहुंचे तो वहां बड़ा कठिन संग्राम हुआ इसमें लक्ष्मीबाई ने जो वीरता और प्रबंध कुशलता दिखाएं उससे उनका नाम चारों तरफ फैल गया इससे लक्ष्मीबाई ने जो भी 18 दिनों तक अंग्रेजों की संगठित सेना झांसी के किले से टक्कर मारती रहे। पर हर बार उसे पीछे ही वापस आना पड़ा अंत में जब 3 अप्रैल 1858 को किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तब लक्ष्मीबाई मर्दानी पोशाक पहनकर सिपाहियों के साथ अंग्रेजी सेना के घेरे को तोड़कर बाहर निकल गई स्वतंत्रता संग्राम के अन्य नेताओं के साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करने लगी। दो हफ्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया परंतु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बचकर भाग निकलने में सफल हो गए रानी झांसी के भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।

तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय निधि रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और रानी लक्ष्मीबाई ने राखी भेजी थी इसीलिए वह किस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए।

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु

अंग्रेजों की तरफ से कैप्टन रॉडिक बिग पहला शख्स था। जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आंखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा उन्होंने देखा कि घोड़े की रस्सी अपने दांतों में दबाई हुई थी। वे दोनों हाथों से तलवार चला रही थी और एक साथ दोनों तरफ वार कर रही थी 18  जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते सिर पर तलवार के वार से घायल हो गई। और रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई थी ।लड़ाई रिपोर्ट में ब्रितानी जर्नल  ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुंदरता चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेख भी थी विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।

यह भी माना जाता है कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के मुख्यता तीन घोड़े थे। उन्हीं के साथ हमेशा जंग पर जाया करती थी ।घोड़ों का नाम पवन ,बादल और सारंगी था या भी कहा जाता है। कि जब रानी बादल पर सवार होकर महल की ऊंची दीवारों से कूदी थी। तो बादल ने रानी को बचाने के लिए अपनी जान दे दी इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई पवन का प्रयोग करने लगे।

बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी!!

मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाली !

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी!!

रानी लक्ष्मी बाई के प्रसिद्ध नारे आज भी भर देते हैं जोश-

मैं अपनी झांसी का आत्मसमर्पण नहीं होने दूंगी”

मैदान-ए-जंग में मारना है फिरंगी से नहीं हारना है!

हम आजादी के लिए लड़ते हैं हम विजई होंगे और विजय के फल का आनंद लेंगे!

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